ये बदरा
---------
ये बदरा !
अटका रह गया
किसी नागफनी काँटे में ,
बिजुरी का ज्यों अँचरा !
ये बदरा ! !
जल की चल झीलें ये ,
उड़ती हैं चीलों - सी ,
झर - झर - झर झरती हैं ,
जलफुहियाँ खीलों सी ;
पानी की सतह - सतह
बूँद के बतासे ये
फैंक दिए मेघों ने
खिसिया कर पाँसे ये ;
पीपल जो बेहद खुश
था अपनी बाजी पर ,
उसके ही सिर अब
गाज गिरी है अररा
ये बदरा ! !
व्योम की ढलानों पर
बरखा के बेटे ये ,
दौड़ - दौड़ हार गये ,
हार -हार बैठे ये ;
लेटे - अधलेटे ये
नक्षत्री नैन मूँद ,
चंदा के अँजुरी भर
स्वप्न सँजों बूँद - बूँद ;
अर्पित हो बिखर गये
भावुक समर्पण में ,
टूट गया जादू औ '
टोनों का हर पहरा !
ये बदरा ! !
बिना रीढ़ वाले ये
जमुनी अँधेरे - से ,
आर - पार घिरे हुए
सम्भ्रम के घेरे - से ;
धरती की साँसों की
गुंजलक में बँधे हुए ,
आते हैं सागर की
सुधियों से लधे - फँदे ;
आँखों में अंकित हैं
काया के इन्द्रधनुष ,
प्राणों में बीते का
सम्मोहन है गहरा !
ये बदरा ! !
ये बदरा !
अटका रह गया
किसी नागफनी काँटे में ,
बिजुरी का ज्यों अँचरा !
ये बदरा ! !
- श्रीकृष्ण शर्मा
-----------------------------------------
( रचनाकाल - 1959 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 50, 51
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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ये बदरा !
अटका रह गया
किसी नागफनी काँटे में ,
बिजुरी का ज्यों अँचरा !
ये बदरा ! !
जल की चल झीलें ये ,
उड़ती हैं चीलों - सी ,
झर - झर - झर झरती हैं ,
जलफुहियाँ खीलों सी ;
पानी की सतह - सतह
बूँद के बतासे ये
फैंक दिए मेघों ने
खिसिया कर पाँसे ये ;
पीपल जो बेहद खुश
था अपनी बाजी पर ,
उसके ही सिर अब
गाज गिरी है अररा
ये बदरा ! !
व्योम की ढलानों पर
बरखा के बेटे ये ,
दौड़ - दौड़ हार गये ,
हार -हार बैठे ये ;
लेटे - अधलेटे ये
नक्षत्री नैन मूँद ,
चंदा के अँजुरी भर
स्वप्न सँजों बूँद - बूँद ;
अर्पित हो बिखर गये
भावुक समर्पण में ,
टूट गया जादू औ '
टोनों का हर पहरा !
ये बदरा ! !
बिना रीढ़ वाले ये
जमुनी अँधेरे - से ,
आर - पार घिरे हुए
सम्भ्रम के घेरे - से ;
धरती की साँसों की
गुंजलक में बँधे हुए ,
आते हैं सागर की
सुधियों से लधे - फँदे ;
आँखों में अंकित हैं
काया के इन्द्रधनुष ,
प्राणों में बीते का
सम्मोहन है गहरा !
ये बदरा ! !
ये बदरा !
अटका रह गया
किसी नागफनी काँटे में ,
बिजुरी का ज्यों अँचरा !
ये बदरा ! !
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1959 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 50, 51
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
बहुत - बहुत धन्यवाद .आप जैसे साहित्यकरों से कविता जगत बुलंदियों पर है .आपकी इस निष्पक्षतापूर्ण उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद .
ReplyDeleteजल की जल चीलें
ReplyDeleteउडती हैं चीलों सी
झर-झर-झर झरती हैं
जलफुइयां खीलों की
वाह!!
आंखों में अंकित हैं
काया के इंद्रधनुष
प्राणों में बीते का
सम्मोहन है गहरा
ये बदरा----वाह!!
व्योंम की ढलानों पर
बरखा के बेटे ये---
हार-हार ये बैठे हैं—वाह!!!
धन्यवाद डॉ उर्मिला सिंह |
Deleteआप बहुत अच्छा लिखते है |
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