अब न बाकी भरम कोई ! !
बन्धु , यह स्वीकारने में ,
है न मुझको शरम कोई !
अब न बाकी भरम कोई ! !
थी घटा या थी झड़ी वह ?
या कि थी बरखा खड़ी वह ?
फूल - सी सुंदर - सुकोमल ,
मधुऋतों ने थी गढ़ी वह ?
किन्तु विद्युत - सी जगाकर
स्वप्न जागृति में दिखाकर
और मुझको जड़ बनाकर
कहाँ खुशबू - सी गयी वह ,
जानता क्या मरम कोई ?
अब न बाकी भरम कोई ! !
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन '' , पृष्ठ - 26
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