शायद मेरी ही गलती थी । ।
घिरी हुई थी जब कि यामिनी ,
सोच रहा था मैं विहान की ,
आज शिशिर का प्रात आ गया ,
पर ख़ामोशी सूनसान की ;
इससे तो वह रात भली थी ,
रजत चाँदनी जब बहती थी ,
जब पखवाड़े वाद चाँद से ,
मिलने की आशा रहती थी ;
थे जब मन के पास सितारे ,
सपने थे आँखों के द्वारे ,
आज तरसता हूँ मैं जिसको ,
वही मुझे पहले खलती थी ।
शायद मेरी ही गलती थी । ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन '' , पृष्ठ - 27
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