इस ऊँचे आसमाँ की बुलंदी को क्या करूँ ?
मैं हूँ पखेरू , गर न उड़ूँ भी तो क्या करूँ ?
सूरज की आग मुझको राख तो न कर सकी ,
पर मेरे इन परों को नई आब दे गई ,
मेरा वजूद भी है कुछ इस दौरे वक्त में ,
धरती को ये तहरीर मेरी छाँव दे गई ,
ताउम्र मैं हवा के इर्द - गिर्द ही रहा ,
झिंझोड़ा बगूलों ने , कहर मौत का सहा ,
ये ज़िंदगी * अजीयतों * का नर्क ही सही
पर स्वर्ग की ख़ातिर न लडूँ भी तो क्या करूँ ?
इस ऊँचे आसमाँ की बुलंदी को क्या करूँ ?
मैं हूँ पखेरू , गर न उड़ूँ भी तो क्या करूँ ?
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* यातनाओं
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन '' , पृष्ठ - 36
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