प्राणों की इस पर्णकुटी में ,
इतनी पीर समाई कैसे ?
घृणा - उपेक्षा सहकर भी यह
व्यथा आज अँगड़ाई कैसे ?
कितनी बरती थी होशियारी ,
कितनी गर्द - गुबार बुहारी ,
ख्वाहिश को बंदी रख कर की
भावुक मन की पहरेदारी ;
पर किस दुर्बलता के पल ने ,
किस छलना के निर्मम छल ने ,
आँसुओं की बाढ़ में न जाने ,
यह ज्वाला सुलगाई कैसे ?
प्राणों की इस पर्णकुटी में ,
इतनी पीर समाई कैसे ?
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन '' , पृष्ठ - 28
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शब्द नहीं कहने को ,आत,आत्मा अकुलाई है ,
ReplyDeleteआपने भी क्या खूब ,ये पंक्तियां पढवाई हैं ,
सुंदर शब्दों का चयन , संयोजन कर के लाई हैं ,
दिल से निकली ,रचना ये मन को हमारे भाई है ..
बहुत बहुत शुभकामनाएं ।
धन्यवाद मदन जी |
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