होना था गर यही , भला फिर क्यों हम अपने हाड़ फोड़ते ,
हर आफत से लड़कर भारी और कठोर पहाड़ ओढ़ते ?
मातृभूमि की आजादी के लिए आग में होम हुए हम ,
गाँव - खेत - घर छोड़ , खंडहरों - शमसानों के ' डोम ' हुए हम ,
अब अफसानों - जैसा लगता अपना त्याग शहादत अपनी ,
ग़ैरत अपनी गिरवी रखकर बिकने वाली कौम हुए हम ,
भीख माँगते द्वार - द्वार पर , फूँक रहे ठाठ औ ' सिंगार पर
अपनों को धकिया , गैरों को आसन देते सहस्रार पर ;
भाड़ झौंकते , चरा पौंकते , खाया - पीया अपच ओकते ,
खंड - खंड में बाँट सभी को , खूनी दाढ़ों से झिंझोड़ते ।
होना था गर यही , भला फिर क्यों हम अपने हाड़ फोड़ते ,
हर आफत से लड़कर भारी और कठोर पहाड़ ओढ़ते ?
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन '' , पृष्ठ - 78
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