विवशता का शाप
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उग रहा अकेलापन साँझ के सिवाने ।
सन्नाटा बुन डाला ऊबती हवा ने ।
दिन के दरवाजे को
धूप रही भेड़ ,
सूख रहा किरणों का
हरा -भरा पेड़ ;
तिमिर लगा चमगादड़ - जैसा मँडराने ।
सन्नाटा बुन डाला ऊबती हवा ने ।
उजियारे का घेराव
करते ये कौन ?
सबकी स्वीकृृतियों - सा
बिखर रहा मौन ;
निंदिया सम्मोहन के मंत्र लगी गाने ।
सन्नाटा बुन डाला ऊबती हवा ने ।
उड़ती औ ' टकरा कर
गिरती चुपचाप ,
स्वयं में विवशता ही
शायद है शाप ;
मन की गौरेया का त्रास कौन जाने ?
सन्नाटा बुन डाला ऊबती हवा ने ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1965 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 84
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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उग रहा अकेलापन साँझ के सिवाने ।
सन्नाटा बुन डाला ऊबती हवा ने ।
दिन के दरवाजे को
धूप रही भेड़ ,
सूख रहा किरणों का
हरा -भरा पेड़ ;
तिमिर लगा चमगादड़ - जैसा मँडराने ।
सन्नाटा बुन डाला ऊबती हवा ने ।
उजियारे का घेराव
करते ये कौन ?
सबकी स्वीकृृतियों - सा
बिखर रहा मौन ;
निंदिया सम्मोहन के मंत्र लगी गाने ।
सन्नाटा बुन डाला ऊबती हवा ने ।
उड़ती औ ' टकरा कर
गिरती चुपचाप ,
स्वयं में विवशता ही
शायद है शाप ;
मन की गौरेया का त्रास कौन जाने ?
सन्नाटा बुन डाला ऊबती हवा ने ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1965 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 84
sksharmakavitaye.blogspot.in
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धन्यवाद मयंक जी |
ReplyDeleteसुन्दर शब्द रचना......................
ReplyDeletehttp://savanxxx.blogspot.in
धन्यवाद सावन जी |
ReplyDeleteधन्यवाद सावन जी |
ReplyDeleteसहज शब्दों में कही गयी भावपूर्ण रचना, आभार
ReplyDeleteधन्यवाद डॉ.महेन्द्रग जी |
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