साँसों को कब तक बहलायें ?
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मुट्ठी भर धूप गयी आँगन की ,
सीला मन कैसे गरमायें अब ?
दिन ने घी - सेंदुर के साँतिये बनाये थे
औ ' भींतों छापे थे हल्दी के थापे ;
आश्वासन के वे रंगीन और चमकीले
चेहरे भी काले अँधियारे ने ढाँपे ;
सई - साँझ सन्नाटा पसर गया ,
किस पर इस दृष्टि को टिकायें अब ?
मुट्ठी भर धूप गयी आँगन की ,
सीला मन कैसे गरमायें अब ?
सन्ध्या के द्वारे सब उत्सव संझाये हैं ,
महराती आवाजें साँपिन की खायी ;
बैठे हैं सपनों को घेरे कुछ भाग्यहीन ,
पर अलाव की गीली लकड़ी तक कड़ुआयी ;
गाँठ -गाँठ चिलकन से टूट रही ,
गठिया में कैसे अंगड़ाये अब ?
मुट्ठी भर धूप गयी आँगन की ,
सीला मन कैसे गरमायें अब ?
सूर्य मरा , बैठी है रात किसी विधवा - सी ,
मातमपुरसी करते कुत्ते भी रोते हैं
कुहरे की पर्तों - दर - पर्तों में से होकर
लाश ज़िन्दगी की सब सुबह तलक ढोते हैं ;
असुरक्षित औ ' त्रासद भरकों में ,
साँसों को कब तक बहलायें अब ?
मुट्ठी भर धूप गयी आँगन की ,
सील मन कैसे गरमायें अब ?
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1965 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 82 , 83
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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मुट्ठी भर धूप गयी आँगन की ,
सीला मन कैसे गरमायें अब ?
दिन ने घी - सेंदुर के साँतिये बनाये थे
औ ' भींतों छापे थे हल्दी के थापे ;
आश्वासन के वे रंगीन और चमकीले
चेहरे भी काले अँधियारे ने ढाँपे ;
सई - साँझ सन्नाटा पसर गया ,
किस पर इस दृष्टि को टिकायें अब ?
मुट्ठी भर धूप गयी आँगन की ,
सीला मन कैसे गरमायें अब ?
सन्ध्या के द्वारे सब उत्सव संझाये हैं ,
महराती आवाजें साँपिन की खायी ;
बैठे हैं सपनों को घेरे कुछ भाग्यहीन ,
पर अलाव की गीली लकड़ी तक कड़ुआयी ;
गाँठ -गाँठ चिलकन से टूट रही ,
गठिया में कैसे अंगड़ाये अब ?
मुट्ठी भर धूप गयी आँगन की ,
सीला मन कैसे गरमायें अब ?
सूर्य मरा , बैठी है रात किसी विधवा - सी ,
मातमपुरसी करते कुत्ते भी रोते हैं
कुहरे की पर्तों - दर - पर्तों में से होकर
लाश ज़िन्दगी की सब सुबह तलक ढोते हैं ;
असुरक्षित औ ' त्रासद भरकों में ,
साँसों को कब तक बहलायें अब ?
मुट्ठी भर धूप गयी आँगन की ,
सील मन कैसे गरमायें अब ?
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1965 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 82 , 83
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