टप - टप - टप
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टप - टप - टप
टिपिर - टिपिर
चौबीसों घण्टों की ,
ऊपर से बादरिया आँखें भी दिखलाती ।
हतभागी आत्माएँ
अपराधों पर रोतीं ,
मन को पछतावे के
झरनों में हैं धोतीं ;
कजराई -
जूही के फूलों - सी उजराती ।
टप - टप - टप
टिपिर - टिपिर
चौबीसों घण्टों की ,
संजीदा औ ' उदास
ममता के बावजूद
उकताहट जन्माती ।
इससे तो अच्छा है ये बादल टूट गिरें ,
धरती पर बछड़ों - सी धाराएँ दौड़ पड़ें ,
पेड़ बजायें ताली औ ' फसलें गीत पढ़ें ,
बदहवास खुशियों के हरियाले दिवस फिरें ,
फूल उठे चौमासे -
हर तालाब की छाती ।
टप - टप - टप
टिपिर - टिपिर
चौबीसों घण्टों की ,
ऊपर से बादरिया आँखें भी दिखलाती ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1965 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 80
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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चौबीसों घण्टों की ,
ऊपर से बादरिया आँखें भी दिखलाती ।
हतभागी आत्माएँ
अपराधों पर रोतीं ,
मन को पछतावे के
झरनों में हैं धोतीं ;
कजराई -
जूही के फूलों - सी उजराती ।
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चौबीसों घण्टों की ,
संजीदा औ ' उदास
ममता के बावजूद
उकताहट जन्माती ।
इससे तो अच्छा है ये बादल टूट गिरें ,
धरती पर बछड़ों - सी धाराएँ दौड़ पड़ें ,
पेड़ बजायें ताली औ ' फसलें गीत पढ़ें ,
बदहवास खुशियों के हरियाले दिवस फिरें ,
फूल उठे चौमासे -
हर तालाब की छाती ।
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चौबीसों घण्टों की ,
ऊपर से बादरिया आँखें भी दिखलाती ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1965 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 80
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