टूट गया हूँ
------------
टूट गया हूँ मुझको
कँपा रहे हिलकोरे ,
बह न कहीं जाऊँ मैं
इन आती लहरों में ।
भटकन भटकती है ,
और छला जाऊँगा ;
दिग्भ्रम का मारा मैं
दूर चला जाऊँगा ;
बहका हूँ मरुस्थल के
हरियाले शहरों में ।
बह न कहीं जाऊँ मैं
इन आती लहरों में ।
तम में भी उग आया ,
अंकुर उजियारे का ;
मेरा अस्तित्व मगर
टूटते सितारे का ;
जिसको खो जाना है ,
धूप के कटहरों में ।
बह न कहीं जाऊँ मैं
इन आती लहरों में ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
----------------------------------------
( रचनाकाल - 1964 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 72
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
------------
टूट गया हूँ मुझको
कँपा रहे हिलकोरे ,
बह न कहीं जाऊँ मैं
इन आती लहरों में ।
भटकन भटकती है ,
और छला जाऊँगा ;
दिग्भ्रम का मारा मैं
दूर चला जाऊँगा ;
बहका हूँ मरुस्थल के
हरियाले शहरों में ।
बह न कहीं जाऊँ मैं
इन आती लहरों में ।
तम में भी उग आया ,
अंकुर उजियारे का ;
मेरा अस्तित्व मगर
टूटते सितारे का ;
जिसको खो जाना है ,
धूप के कटहरों में ।
बह न कहीं जाऊँ मैं
इन आती लहरों में ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
----------------------------------------
( रचनाकाल - 1964 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 72
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (09-03-2015) को "मेरी कहानी,...आँखों में पानी" { चर्चा अंक-1912 } पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद मयंक जी |
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत सटीक और भावमयी रचना...
ReplyDeleteधन्यवाद कैलाश जी |
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteकितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने.बहुत खूब,बेह्तरीन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteधन्यवाद मदन जी |
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDelete