कहाँ अब वह गुलाबी भोर ?
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है कहाँ अब वह गुलाबी भोर ?
बस पसरी हुई है धूप की ही देह नारंगी ।
फरसों के झुओं के बाल बिखरे हैं हवा में ,
हवा में इस नदी के अंग सिहरे हैं ,
लहर पर चढ़ गयीं लहरें बड़ी ही सहजता से ,
बड़ी ही सहजता से
ये फसल के हाथ में
जैसे थमा कर आ गयीं कंघी ।
है कहाँ अब वह गुलाबी भोर ?
बस पसरी हुई है धूप की ही देह नारंगी ।
सुबह की शाख पर थे गुलमोहर फूटे यहाँ जो ,
यहाँ जो धूप - छापे तिमिर में छूटे ,
क्षितिज के पृष्ठ पर सम्भावना की जो इबारत ,
इबारत ख़ुशख़ती से
जो की सूरज ने लिखी ,
दिखती नहीं है , आँख है नंगी ।
है कहीं अब वह गुलाबी भोर ?
बस पसरी हुई है धूप की ही देह नारंगी ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1965 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 81
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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है कहाँ अब वह गुलाबी भोर ?
बस पसरी हुई है धूप की ही देह नारंगी ।
फरसों के झुओं के बाल बिखरे हैं हवा में ,
हवा में इस नदी के अंग सिहरे हैं ,
लहर पर चढ़ गयीं लहरें बड़ी ही सहजता से ,
बड़ी ही सहजता से
ये फसल के हाथ में
जैसे थमा कर आ गयीं कंघी ।
है कहाँ अब वह गुलाबी भोर ?
बस पसरी हुई है धूप की ही देह नारंगी ।
सुबह की शाख पर थे गुलमोहर फूटे यहाँ जो ,
यहाँ जो धूप - छापे तिमिर में छूटे ,
क्षितिज के पृष्ठ पर सम्भावना की जो इबारत ,
इबारत ख़ुशख़ती से
जो की सूरज ने लिखी ,
दिखती नहीं है , आँख है नंगी ।
है कहीं अब वह गुलाबी भोर ?
बस पसरी हुई है धूप की ही देह नारंगी ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1965 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 81
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धन्यवाद मयंक जी |
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