घर की याद
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दूर , घर से दूर ,
कितना आज यह टूटा हुआ मन है ?
उदासी घिर रही है शाम के माहौल के संग - संग ,
कि फीका पड़ चला है अब प्रवालों का चमकता रँग ;
बहुत ही अनमना - सा व्योम में है एक ही नक्षत्र ,
मेरे किन्तु चारों ओर घिर आया गहन वन है ।
घर से दूर , कितना आज यह टूटा हुआ मन है ?
छिपा है रात के पहले प्रहर में ही निकल कर चाँद ,
कैसी जिन्दगी यह , सिर्फ जिसका एक - सा ही स्वाद ;
जाने किस धरातल पर उतरते रोज़ ही सपने ,
मगर खोया अपरिचित - से ख़यालों में अचेतन है ।
घर से दूर , कितना आज यह टूटा हुआ मन है ?
तुम्हारा मूक -निश्छल स्नेह मीठी धूप - सा लगता ,
अजब मधुमास का जादू जगा जाती मधुर ममता ;
कि चौके और चूल्हे में लगी जो राख अलकों पर ,
निग़ाहों में उतरती तो तरसता दग्ध सावन है ।
घर से दूर , कितना आज टूटा हुआ मन है ?
कि मेरी आत्मा के अंश , मेरे प्राण के टुकड़े ,
बहुत ही याद आते हैं मुझे वे तीन प्रिय मुखड़े ;
नयन में घूम जाते हैं , मुझे बेहद रुलाते हैं ,
कि नन्हें - से घरौंदों को ललकता हाय बचपन है ।
घर से दूर , कितना आज यह टूटा हुआ मन है ?
हवाएँ सिर पटकती जा रहीं हैं व्यर्थ शीशों पर ,
न जाने क्या गया है टूट - सा इस प्राण के भीतर ;
करकते काँच कितने ही सही जाती नहीं पीड़ा ,
कि मेरा भाग्य क्यों छविहीन फूटा एक दरपन है !
घर से दूर , कितना आज यह टूटा हुआ मन है ?
कि कितने इन्द्रधनुषों के दुखों ने रंग धो डाले ,
समय के पूर्व ही हम - तुम व्यथाओं ने पका डाले ;
कि लगता कामनाएँ बोझ बनकर रह गयीं सिर पर ,
सँजोत ही सँजोते तो गया ये बिखर जीवन है ।
घर से दूर , कितना आज ये टूटा हुआ मन है ?
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1965 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 86
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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दूर , घर से दूर ,
कितना आज यह टूटा हुआ मन है ?
उदासी घिर रही है शाम के माहौल के संग - संग ,
कि फीका पड़ चला है अब प्रवालों का चमकता रँग ;
बहुत ही अनमना - सा व्योम में है एक ही नक्षत्र ,
मेरे किन्तु चारों ओर घिर आया गहन वन है ।
घर से दूर , कितना आज यह टूटा हुआ मन है ?
छिपा है रात के पहले प्रहर में ही निकल कर चाँद ,
कैसी जिन्दगी यह , सिर्फ जिसका एक - सा ही स्वाद ;
जाने किस धरातल पर उतरते रोज़ ही सपने ,
मगर खोया अपरिचित - से ख़यालों में अचेतन है ।
घर से दूर , कितना आज यह टूटा हुआ मन है ?
तुम्हारा मूक -निश्छल स्नेह मीठी धूप - सा लगता ,
अजब मधुमास का जादू जगा जाती मधुर ममता ;
कि चौके और चूल्हे में लगी जो राख अलकों पर ,
निग़ाहों में उतरती तो तरसता दग्ध सावन है ।
घर से दूर , कितना आज टूटा हुआ मन है ?
कि मेरी आत्मा के अंश , मेरे प्राण के टुकड़े ,
बहुत ही याद आते हैं मुझे वे तीन प्रिय मुखड़े ;
नयन में घूम जाते हैं , मुझे बेहद रुलाते हैं ,
कि नन्हें - से घरौंदों को ललकता हाय बचपन है ।
घर से दूर , कितना आज यह टूटा हुआ मन है ?
हवाएँ सिर पटकती जा रहीं हैं व्यर्थ शीशों पर ,
न जाने क्या गया है टूट - सा इस प्राण के भीतर ;
करकते काँच कितने ही सही जाती नहीं पीड़ा ,
कि मेरा भाग्य क्यों छविहीन फूटा एक दरपन है !
घर से दूर , कितना आज यह टूटा हुआ मन है ?
कि कितने इन्द्रधनुषों के दुखों ने रंग धो डाले ,
समय के पूर्व ही हम - तुम व्यथाओं ने पका डाले ;
कि लगता कामनाएँ बोझ बनकर रह गयीं सिर पर ,
सँजोत ही सँजोते तो गया ये बिखर जीवन है ।
घर से दूर , कितना आज ये टूटा हुआ मन है ?
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1965 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 86
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