Sunday, March 15, 2015

घर की याद

   घर की याद 
   -------------

    दूर , घर से दूर ,
    कितना आज यह टूटा हुआ मन है ?

    उदासी घिर रही है शाम के माहौल के संग - संग ,
    कि फीका पड़ चला है अब प्रवालों का चमकता रँग ;
    बहुत ही अनमना - सा व्योम में है एक ही नक्षत्र ,
    मेरे किन्तु चारों ओर घिर आया गहन वन है । 
    घर से दूर , कितना आज यह टूटा हुआ मन है ?

    छिपा है रात के पहले प्रहर में ही निकल कर चाँद ,
    कैसी जिन्दगी यह , सिर्फ जिसका  एक - सा ही स्वाद ;
    जाने किस धरातल पर उतरते रोज़ ही सपने ,
    मगर खोया अपरिचित - से ख़यालों में अचेतन है । 
    घर से दूर , कितना आज यह टूटा हुआ मन है ?

    तुम्हारा मूक -निश्छल स्नेह मीठी धूप - सा लगता ,
    अजब मधुमास का जादू जगा जाती मधुर ममता ;
    कि चौके और चूल्हे में लगी जो राख अलकों पर ,
    निग़ाहों में उतरती तो  तरसता दग्ध  सावन है । 
    घर से दूर , कितना आज  टूटा हुआ मन  है ?

    कि मेरी आत्मा के अंश , मेरे प्राण के टुकड़े ,
    बहुत ही याद आते हैं मुझे वे तीन प्रिय मुखड़े ;
    नयन में घूम जाते हैं , मुझे बेहद रुलाते हैं ,
    कि नन्हें - से घरौंदों को  ललकता हाय बचपन है । 
    घर से दूर , कितना आज यह टूटा हुआ मन है ?

    हवाएँ सिर पटकती जा रहीं हैं व्यर्थ शीशों पर ,
    न जाने क्या गया है टूट - सा इस प्राण के भीतर ;
    करकते काँच कितने ही सही जाती नहीं पीड़ा ,
    कि मेरा भाग्य क्यों छविहीन फूटा एक दरपन है !
    घर से दूर , कितना आज यह टूटा हुआ मन है ?

    कि कितने इन्द्रधनुषों के दुखों ने रंग धो डाले ,
    समय के पूर्व ही हम - तुम व्यथाओं ने पका डाले ;
    कि लगता कामनाएँ बोझ बनकर रह गयीं सिर पर ,
    सँजोत ही सँजोते तो गया ये बिखर जीवन है । 
    घर से दूर , कितना आज ये टूटा हुआ मन है ?

                                                                     - श्रीकृष्ण शर्मा 

----------------------------------------- 
( रचनाकाल - 1965 )  ,  पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर ''  ,  पृष्ठ - 86 








sksharmakavitaye.blogspot.in

shrikrishnasharma.wordpress.com

No comments:

Post a Comment