ग्रीष्म की दोपहर
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लगता है
सूरज पिघल गया ।
कण - कण में चमकीला पारद -सा ढल गया ।
हरियाली मरी
प्यास उग आयी ।
पानी की आँखें तक पथरायीं ।
धू - धू कर जलता है ,
लावे - सा रेत ।
हू - हू कर उड़ते हैं ,
बालू के प्रेत ।
काया के मोती
क्यों व्यर्थ जनम आये ?
दुपहर के हाथों से शोर तक फिसल गया ।
लगता है
सूरज पिघल गया ।
कण - कण में चमकीला पारद - सा ढल गया ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1965 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 79
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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लगता है
सूरज पिघल गया ।
कण - कण में चमकीला पारद -सा ढल गया ।
हरियाली मरी
प्यास उग आयी ।
पानी की आँखें तक पथरायीं ।
धू - धू कर जलता है ,
लावे - सा रेत ।
हू - हू कर उड़ते हैं ,
बालू के प्रेत ।
काया के मोती
क्यों व्यर्थ जनम आये ?
दुपहर के हाथों से शोर तक फिसल गया ।
लगता है
सूरज पिघल गया ।
कण - कण में चमकीला पारद - सा ढल गया ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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धन्यवाद मदन जी |
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