हिरन कुलाँचें भरता वन में ,
पाखी फुदक रहा फुनगी पर !
किन्तु करे क्या ह्रदय विचारा
झुलस रहा सुधि की चिनगी पर ?
तिल - तिल कर दीपक जलता है ,
दिप - दिप कर जलते हैं तारे ,
घुट - घुट कर यह मन जलता है ,
प्राण , तुम्हारी सुधि के द्वारे !
चाँदी - जैसा ताजमहल है ,
सोने - सी सन्ध्या की काया ।
नीलम - वर्णी यमुना , लेकिन
मन पत्थर जैसा पथराया !
नीमों हैं कच्ची निबौलियाँ ,
महुआ भरते मधु से प्याले ।
पर मन की टहनी से उलझे ,
सुधियों की मकड़ी के जाले ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन '' , पृष्ठ - 52
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