सन्ध्या क्या आई कि तिमिर का
उमड़ पड़ा है एक समंदर ।
संज्ञा का पार्थक्य मिटाने ,
उठता जैसे - एक बवंडर ।
सूरज अपने साथ ले गया ,
इन्द्रधनुष के सब रंगों को ।
सिर्फ़ नींद का आँचल ढाँपे ,
सपनों के मादक अंगों को ।
नहीं दिखाई देता कुछ भी ,
सुन पड़ती है आवाज़ें भर ।
अँधियारे की आँख - सरीखा ,
दीप चमकता दूर कहीं पर ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
________________________
पुस्तक - '' बोल मेरे मौन '' , पृष्ठ -62
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
No comments:
Post a Comment