ढँका बदलियों ने उमड़ कर घुमड़ कर ,
मुझे चाँद ने जब निहारा गगन से ।
कोई भावना थी
जो अभिव्यक्ति पाकर
किसी गीत की
आज संज्ञा बनी है ,
कोई कामना थी
जो तुमसे बिछुड़कर
मेरे वास्ते
आज सन्ध्या बनी है ,
कि पत्थर कहूँ या कहूँ देवता जो ,
न डोला किसी साधना से भजन से ?
ढँका बदलियों ने उमड़ कर घुमड़ कर ,
मुझे चाँद ने जब निहारा गगन से ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन '' , पृष्ठ - 48
shrikrishnasharma.wordpress.com
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