Wednesday, June 17, 2015

दर्द ओढ़ा










   दर्द ओढ़ा 
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    एक - एक कर गुजरा दिन 
    और ज्यों - त्यों  कर आया दिन ,
    रात - भर जो दर्द ओढ़ा 
    तहा सिरहाने किसी चादर - सरीखा 
    रख लिया मैंने । 

    बताऊँ क्या किसी को 
    जो कि बीता है ,
    किसी ने है दिया 
    भुस में पलीता है ;
    घुटन कितनी सही ,
    लेकिन धुएँ  में आग में 
    हर साँस को 
    फिर भी जिया मैंने । 

    जुड़ें चाहें सभाएँ 
    या जुड़ें महफ़िल ,
    अपरिचित औ ' पराये द्वार 
    क्या हासिल ?
    कि देखा तो बहुत टूटा ,
    मगर फिर और पत्थर रख 
    हृदय टूटा हुआ ये 
    ढँक लिया मैंने । 

                              - श्रीकृष्ण शर्मा 
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल ''   ,  पृष्ठ - 63












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