दर्द ओढ़ा
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एक - एक कर गुजरा दिन
और ज्यों - त्यों कर आया दिन ,
रात - भर जो दर्द ओढ़ा
तहा सिरहाने किसी चादर - सरीखा
रख लिया मैंने ।
बताऊँ क्या किसी को
जो कि बीता है ,
किसी ने है दिया
भुस में पलीता है ;
घुटन कितनी सही ,
लेकिन धुएँ में आग में
हर साँस को
फिर भी जिया मैंने ।
जुड़ें चाहें सभाएँ
या जुड़ें महफ़िल ,
अपरिचित औ ' पराये द्वार
क्या हासिल ?
कि देखा तो बहुत टूटा ,
मगर फिर और पत्थर रख
हृदय टूटा हुआ ये
ढँक लिया मैंने ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 63
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