फूट रहे कुल्ले
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झूठ नहीं ,
ठूँठ था यहाँ पर
अब ठूँठ नहीं ।
फूट रहे कुल्ले
ज्यों चन्द्रमा ,
बीहड़ को फोड़
उग रहा समां ;
अंधे आतंक से ,
तू टूट नहीं ।
मंच के नियामक
तो चले गये ,
बाँबी से बाहर
विष - सर्प नये ;
फन पर रख बूट ,
अगर मूँठ नहीं ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 63
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