Friday, June 19, 2015

नहीं नदी पर सेतु










नहीं नदी पर सेतु 
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नहीं नदी पर सेतु ,
न तट पर नाव ,
रहना ही होगा 
अब तो इस गाँव । 

डूब रही रोशनी ,
देखता सहमा सन्नाटा ,
कुछ ठिठका , फिर करता 
सूरज भी टा - टा ;
इस अथाह ने तोड़े 
सबके पाँव । 

यात्रा टूट रही है ,
द्वार दूसरों के ,
क़ब्रिस्तान - सरीखे 
खुदगर्ज़ ऊसरों के ;
कातर मन को जोड़ें 
कैसे इस ठाँव ?

                       - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल ''  ,  पृष्ठ - 65










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