नहीं नदी पर सेतु
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नहीं नदी पर सेतु ,
न तट पर नाव ,
रहना ही होगा
अब तो इस गाँव ।
डूब रही रोशनी ,
देखता सहमा सन्नाटा ,
कुछ ठिठका , फिर करता
सूरज भी टा - टा ;
इस अथाह ने तोड़े
सबके पाँव ।
यात्रा टूट रही है ,
द्वार दूसरों के ,
क़ब्रिस्तान - सरीखे
खुदगर्ज़ ऊसरों के ;
कातर मन को जोड़ें
कैसे इस ठाँव ?
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 65
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