क्या भला होगा ?
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अग्नि - पथ में
सिर झुकाकर बैठने से ,
क्या भला होगा ?
है पता ठोकर लगी है पाँव को ,
रिस रहा है ख़ून ,
घिसता दर्द भी तो घाव को ;
किन्तु यों
विष - सर्प सिर्फ समेटने से ,
क्या भला होगा ?
बड़ी असहज
ज्योंकि दुर्वासा - हताशा है ,
यों अधीरज से
खुलेगा एक भी इसका न गाँसा है ;
सब्र करके देख ,
इस गल - घोंटने से ,
क्या भला होगा ?
ख़ून है तो
तिलक - जैसा
माथ पर ले - ले ,
आग है तो
आरती - सी
हाथ पर ले - ले ;
दायरे में
व्यर्थ चुप - चुप ऐंठने से ,
क्या भला होगा ?
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 68
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