आदमी क्या ?
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कौन कहता है
कि छोटा या बड़ा है ,
आदमी केवल तराजू का धड़ा है ।
बह रही है चेतना
नस - नाड़ियों में ,
ज़िन्दगी है
देह के इन वनों में
घाटी , शिखर व पहाड़ियों में ;
आदमी क्या ?
हड्डियों का एक ढाँचा है ,
कि जिस पर खोल चमड़े का चढ़ा है
किन्तु भीतर
दर्द को महसूसता एक दिल जड़ा है ।
थाहता सागर ,
करों में व्योम थामे ,
बाढ़ - आँधी - बिजलियाँ
लिक्खी गयीं जिसके कि नामे ;
आदमी क्या ?
मुश्किलों से लड़ रहा है ,
गढ़ रहा है एक दुनियाँ ,
और अपने पॉव रख जो
मौत के सिर पर खड़ा है ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 69
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