Saturday, June 20, 2015

सोचते तुम










सोचते तुम 
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सोचते तुम ,
बैठकर मैं वक़्त काटूँगा 
- भला कैसे ?

अँधेरे 
घुप अँधेरे में 
निरर्थक राख होती 
आग सूरज की ,
न जाने 
किन ध्रुवान्तों पर खड़ा मैं 
फोड़कर अमृत - कलश ये 
कर रहा हूँ आज भरपाई 
महाजन की वही में 
पूर्वजों के नाम पर लिक्खे करज़ की ;
देख लो ,
खुद काटता कोई 
स्वयं का ही गला कैसे ?

एक आंधी है 
कि धरती क्या 
गगन का भी कलेजा थरथराता है ,
मगर है आदमी 
जो आफ़तों की बाँह थामे 
ज्योति के अन्तिम क्षणों तक 
झिलमिलाता है ;
स्वयं ही देख लो ,
नक्षत्र उजली आयतें लिखकर 
अँधेरे में ढला कैसे ?

                          - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल ''  ,  पृष्ठ - 67

  







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