सोचते तुम
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सोचते तुम ,
बैठकर मैं वक़्त काटूँगा
- भला कैसे ?
अँधेरे
घुप अँधेरे में
निरर्थक राख होती
आग सूरज की ,
न जाने
किन ध्रुवान्तों पर खड़ा मैं
फोड़कर अमृत - कलश ये
कर रहा हूँ आज भरपाई
महाजन की वही में
पूर्वजों के नाम पर लिक्खे करज़ की ;
देख लो ,
खुद काटता कोई
स्वयं का ही गला कैसे ?
एक आंधी है
कि धरती क्या
गगन का भी कलेजा थरथराता है ,
मगर है आदमी
जो आफ़तों की बाँह थामे
ज्योति के अन्तिम क्षणों तक
झिलमिलाता है ;
स्वयं ही देख लो ,
नक्षत्र उजली आयतें लिखकर
अँधेरे में ढला कैसे ?
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 67
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