कौन बँटायेगा चिन्ता
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एक ही दिशा अपनी
उसमें भी अंधकार ,
घबराकर एक हुए
घर , पौली और द्वार ।
तय था यह पहले ही
अँधियारा होना है ,
सूरज के अस्थि - खण्ड
सारी रात ढोना है ;
फिर किस उजाले का ,
मन को है इंतज़ार ?
कौन बँटायेगा चिन्ता ?
सिर्फ़ है अकेलापन ,
दूर तलक फैला है
मरुथल - सा गूँगापन ;
सिर्फ़ याद पसरी है ,
आँगन में तन उधार
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 60
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