मान का एक दिन
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मेरे अनबोले का
एक बोल गूँज गया ,
जैसे ये पछुआ
मनुहार तुम्हारी ! !
मटमैले वर्तमान
ने अपने कन्धों पर
डाली है बीते की
सात रंग की चादर ,
दुख के इस आँगन में
सुधियों के सुख - जैसा
सन्ध्या ने बिखराया
जाने क्यों ईंगुर ?
एकाकीपन में क्यों
लगा और कोई भी
पास ही उपस्थित है ,
हारे - से मन को
कुछ सान्त्वना देती - सी
खड़क उठी सहसा ही
बन्द दुआरी !
मेरे अनबोले का
एक बोल गूँज गया ,
जैसे ये पछुआ
मनुहार तुम्हारी ! !
इस फैली पोखर की
टूटती लहरियों में
टूट -टूट गया
खड़ा तट पर जो ताड ,
पर जीवन जीने का
आकांक्षी शिखरों पर
चढ़ करके हाँफ रहा
बदरीला साँड़ ;
दिन भर विलगता की
धूप में पके हम - तुम ,
गहरे पछ्तावेवश ,
इन उदास प्रहारों की
आँखों से एक बूँद
गिर कर बन गयी चाँद ,
मैं तुम क्या
सब स्थित हैं
अब उस धरातल पर ,
जहाँ साम्य -रूपा है
आत्मीया अँधियारी !
मेरे अनबोले का
एक बोल गूँज गया ,
जैसे ये पछुआ
मनुहार तुम्हारी ! !
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 64, 65
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
सुनील कुमार शर्मा
पी . जी . टी . ( इतिहास )
पुत्र – स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा ,
जवाहर नवोदय विद्यालय ,
पचपहाड़ , जिला – झालावाड़ , राजस्थान .
पिन कोड – 326512
फोन नम्बर - 9414771867
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26-04-2016) को "मुक़द्दर से लड़ाई चाहता हूँ" (चर्चा अंक-2324) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद मयंक जी |
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