Tuesday, April 21, 2015

उठ रहीं लपटें










    उठ रहीं लपटें 
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     उठ रहीं लपटें !

     सो रहे थे 
     रात को जब लोग 
     मस्ती में ,
     सिरफिरों ने 
     तब लगा दी आग 
     बस्ती में ;

     चीख - चिल्लाहट मची थी ,
     सिर्फ़ घबराहट बची थी ,
     देखते सब राख होते ,
     पर जियाले , धूल - मिट्टी 
     आग पर पटकें !

     हादसों के 
     ख़ौफ़ में डूबी 
     हुई राहें ,
     मौत को 
     हर मोड़ पर फैली 
     हुई बाँहें ,

     हर क़दम बारूद के घर ,
     वहम , संशय , फ़िक्र औ ' डर ,
     इन क्षणों हैं आग कितने ,
     जलाने आतंक को जो 
     लपट बन झपटें !

                   - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल ''  ,  पृष्ठ - 47












sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com

4 comments:

  1. यथार्थ का चित्र काव्यात्मक भाषा में प्रस्तुत कर दिया गया है । कवि को बधाई ।

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  2. बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.

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  3. धन्यवाद सुधेश जी |

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  4. धन्यवाद मदन जी |

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