Thursday, April 30, 2015

मैं फिर भी न सपड़ा










मैं फिर भी न सपड़ा 
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ठीक बाहर 
याकि मेरे ठीक भीतर 
एक मुर्दा ज़िन्दगी 
औ ' शहर उजड़ा । 

ओफ ,
जब ये धड़कता है दिल 
लगता मांस का एक लोथड़ा है ,
और मैं  महसूसता हर पल ;
कि आफ़त - सा कोई पीछे पड़ा है ;

अदबदा कर भागता मैं 
जान अपनी छोड़ ,
गिरता और पड़ता 
पाँव होते हुए लँगड़ा । 

 ख्वाब में 
डर से निकलती चीख ,
लगता हो गयी हैं अधमरी साँसें ,
धँसे हैं  रक्त - प्यासे ड्रेकुला के दाँत ,
खुलते जा रहे हैं देह के गाँसे ;

हो रही इन ठोकरों में 
है कपाल - क्रिया ,
मैँ फिर भी न सपड़ा । 

                    - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल ''  ,  पृष्ठ - 57




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