शेष भाग की नए दिन प्रतीक्षा कीजिये --
Tuesday, June 30, 2015
कवि श्रीकृष्ण शर्मा के दोहा संग्रह – ‘’ मेरी छोटी आँजुरी ‘’ से लिया गया - आस्थाओं का हिमवान - भाग - १
Monday, June 29, 2015
Sunday, June 28, 2015
बुझना मत !
बुझना मत !
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दुविधा में रहना मत !
टूटेगी मावस की
कभी न
कंक्रीट छत !
कोयले की खानों में
सूर्य नहीं आयेगा ,
पहचानों को
अन्धा तिमिर
लील जायेगा ;
बुझना मत ,
साँसों की लपटें
रखना अक्षत !
दुविधा में रहना मत !
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 72
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Saturday, June 27, 2015
हम वसंत - क्षण
हम वसंत - क्षण
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हम पतझर से
हम वसंत - क्षण जुड़ जायें !
वह गया हरापन ,
हुईं डालियाँ निरवंशी ,
हैं पेड़ खड़े
धरती के होठों मृतवंशी ;
ठण्डे अहसासों से
हम जीवित प्रण जुड़ जायें !
सूखे पत्तों
उदास दृश्यों
ऊँघते वक़्त से ग्रस्त हवा ,
मुझसे बिल्कुल सटकर आ बैठी
पराजिता - सी त्रस्त हवा ;
हम गन्ध - फूल
खिल - खिल आश्वासन जुड़ जायें !
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 71
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Friday, June 26, 2015
एक नदी कोलाहल
एक नदी कोलाहल
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डूबे आवाज़ों में
उजले स्वर !
एक नदी कोलाहल
चढ़ा हुआ ,
कुछ भी तो रहा नहीं
पढ़ा हुआ ;
लगते हैं धुँधलाते
शुभ अक्षर !
पश्चिम का टाइफून *
ये अथाह ,
पत्थर की नाव लिए
सार्थवाह ;
थर्राता घर ही क्या
गाँव - शहर !
- श्रीकृष्ण शर्मा
* टाइफून : पश्चिमी प्रशान्त महासागर में आने वाला तूफ़ान
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 70
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Monday, June 22, 2015
आदमी क्या ?
आदमी क्या ?
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कौन कहता है
कि छोटा या बड़ा है ,
आदमी केवल तराजू का धड़ा है ।
बह रही है चेतना
नस - नाड़ियों में ,
ज़िन्दगी है
देह के इन वनों में
घाटी , शिखर व पहाड़ियों में ;
आदमी क्या ?
हड्डियों का एक ढाँचा है ,
कि जिस पर खोल चमड़े का चढ़ा है
किन्तु भीतर
दर्द को महसूसता एक दिल जड़ा है ।
थाहता सागर ,
करों में व्योम थामे ,
बाढ़ - आँधी - बिजलियाँ
लिक्खी गयीं जिसके कि नामे ;
आदमी क्या ?
मुश्किलों से लड़ रहा है ,
गढ़ रहा है एक दुनियाँ ,
और अपने पॉव रख जो
मौत के सिर पर खड़ा है ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 69
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Sunday, June 21, 2015
क्या भला होगा ?
क्या भला होगा ?
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अग्नि - पथ में
सिर झुकाकर बैठने से ,
क्या भला होगा ?
है पता ठोकर लगी है पाँव को ,
रिस रहा है ख़ून ,
घिसता दर्द भी तो घाव को ;
किन्तु यों
विष - सर्प सिर्फ समेटने से ,
क्या भला होगा ?
बड़ी असहज
ज्योंकि दुर्वासा - हताशा है ,
यों अधीरज से
खुलेगा एक भी इसका न गाँसा है ;
सब्र करके देख ,
इस गल - घोंटने से ,
क्या भला होगा ?
ख़ून है तो
तिलक - जैसा
माथ पर ले - ले ,
आग है तो
आरती - सी
हाथ पर ले - ले ;
दायरे में
व्यर्थ चुप - चुप ऐंठने से ,
क्या भला होगा ?
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 68
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Saturday, June 20, 2015
सोचते तुम
सोचते तुम
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सोचते तुम ,
बैठकर मैं वक़्त काटूँगा
- भला कैसे ?
अँधेरे
घुप अँधेरे में
निरर्थक राख होती
आग सूरज की ,
न जाने
किन ध्रुवान्तों पर खड़ा मैं
फोड़कर अमृत - कलश ये
कर रहा हूँ आज भरपाई
महाजन की वही में
पूर्वजों के नाम पर लिक्खे करज़ की ;
देख लो ,
खुद काटता कोई
स्वयं का ही गला कैसे ?
एक आंधी है
कि धरती क्या
गगन का भी कलेजा थरथराता है ,
मगर है आदमी
जो आफ़तों की बाँह थामे
ज्योति के अन्तिम क्षणों तक
झिलमिलाता है ;
स्वयं ही देख लो ,
नक्षत्र उजली आयतें लिखकर
अँधेरे में ढला कैसे ?
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 67
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Friday, June 19, 2015
नहीं नदी पर सेतु
नहीं नदी पर सेतु
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नहीं नदी पर सेतु ,
न तट पर नाव ,
रहना ही होगा
अब तो इस गाँव ।
डूब रही रोशनी ,
देखता सहमा सन्नाटा ,
कुछ ठिठका , फिर करता
सूरज भी टा - टा ;
इस अथाह ने तोड़े
सबके पाँव ।
यात्रा टूट रही है ,
द्वार दूसरों के ,
क़ब्रिस्तान - सरीखे
खुदगर्ज़ ऊसरों के ;
कातर मन को जोड़ें
कैसे इस ठाँव ?
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 65
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Thursday, June 18, 2015
फ़ेहरिस्त लम्बी अभावों की : आदमी
फ़ेहरिस्त लम्बी अभावों की : आदमी
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सिर्फ़ एक फ़ेहरिस्त लम्बी
अब अभावों की ,
बन गया ज्यों बददुआ है
- आदमी ।
अब पहाड़ों - सा खड़ा है
दर्द सीने पर ,
कर्ज़ बढ़ता जा रहा
हर दिन पसीने पर :
जी रहा है ज़िन्दगी
अब बस दबावों की ,
रखा काँधे पर जुआ है
- आदमी ।
जानता है
किन्तु जो मजबूरियाँ ओढ़े ,
यदि न हो
तो हर ज़रूरत को सहज छोड़े ;
किन्तु मन - बहलाब को
गाथा भुलावों की ,
सिर्फ़ दुहराता सुआ है
- आदमी ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 64
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Wednesday, June 17, 2015
दर्द ओढ़ा
दर्द ओढ़ा
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एक - एक कर गुजरा दिन
और ज्यों - त्यों कर आया दिन ,
रात - भर जो दर्द ओढ़ा
तहा सिरहाने किसी चादर - सरीखा
रख लिया मैंने ।
बताऊँ क्या किसी को
जो कि बीता है ,
किसी ने है दिया
भुस में पलीता है ;
घुटन कितनी सही ,
लेकिन धुएँ में आग में
हर साँस को
फिर भी जिया मैंने ।
जुड़ें चाहें सभाएँ
या जुड़ें महफ़िल ,
अपरिचित औ ' पराये द्वार
क्या हासिल ?
कि देखा तो बहुत टूटा ,
मगर फिर और पत्थर रख
हृदय टूटा हुआ ये
ढँक लिया मैंने ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 63
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