Saturday, February 28, 2015

मेरी आँखों में हैं आँसू

   मेरी आँखों में हैं आँसू 
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    मेरी आँखों में है आँसू और तुम्हारे होंठ हँसी है ,
    जैसे कोई चंदनगंधा नागों ने पाश में कसी है । 

                कैसी सुरुचि कि हमने गमले रखे कैक्टस के खिड़की पर ,
                किन्तु झाड़ियों तक जा पहुँची अपने आँगन की तुलसी है । 

    दुनियाँ क्या है , सिर्फ सभ्यता का ही आकर्षक विज्ञापन ,
    किन्तु आदमी आदिम युग की तरह आज भी तो वहशी है । 

               बुझती साँसों में न आँच अब यहाँ किसी को पिघलाने की ,
               जहाँ कि चढ़ती हुई उमर ही कंदराती शाम ने डाँसी है । 

    कल तक मैं वह सब जिस पर सदा बैठते ही आये थे ,
    किन्तु आज सब के दिमाग़  में आकर बैठी वह कुर्सी है । 

               यहाँ पड़ी है किसको , पीड़ा जो कि दूसरों की सहलाये ,
               जहाँ सिर्फ़ बदले की ख़ातिर यह रस्मी मातमपुरसी है । 

                                                                   - श्रीकृष्ण शर्मा 

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     ( रचनाकाल  - 1963 )  ,  पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर ''  ,  पृष्ठ - 67











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